चाहें ज़िंदा रहें चाहें मर जाएँ हम- गायेंगे गायेंगे हम वंदे मातरम् ”
राष्ट्रकवि ‘डॉ उर्मिलेश शंखधार’ की २० वीं पुण्यतिथि पर सादर नमन…
किसी भी इंसान में जोश और राष्ट्रीयता का भाव जगा देने वाली कालजयी कविताएं लिखने वाले ‘राष्ट्रकवि‘ डॉ उर्मिलेश की आज पुण्यतिथि है.कवि सम्मेलनों में शिरकत करने वाला हर शख्स डॉ उर्मिलेश का नाम अवश्य जानता होगा. गए तीन दशकों तक वे कवि सम्मेलनों की स्थायी उपस्थि़ति थे.जिसने गीत की एक लंबी शानदार परंपरा देखी हो, मंच की एक लंबी शानदार पारी खेली हो, देश के हजारों मंचों पर राजकुमार की तरह काव्यपाठ किया हो तथा अपनी मोहिनी मुस्कान और काव्यपाठ के लालित्य से मोह लेने का कौशल जिसके पास हो, ऐसे डॉ उर्मिलेश का इस असार संसार से जाना हिंदी की एक बहुत बड़ी क्षति था वे मंच पर जैसे गीत की सदानीरा बहा देते थे और ग़ज़लों में उतरते थे तो अपने अंदाजेबयां से मोह लेते थे इस मधुर और दिलकश कवि, गीतकार व ग़ज़लगो डॉ उर्मिलेश का 16 मई 2005 को का निधन हुआ था. … डॉ उर्मिलेश एक कवि होने के साथ-साथ बदायूँ नेहरू मेमोरियल शिव नारायण दास महाविद्यालय में हिंदी के प्राध्यापक एवं विभाध्यक्ष रहे,लेकिन निधन के बाद भी वे अमर ही रहे. उनकी कविताएं, किस्सों और किताबों ने हर पीढ़ी को एक साथ जोड़ा.
जीवन परिचय: हिन्दी के सुविख्यात कवि डॉ उर्मिलेश जी का जन्म 6 जुलाई 1951 ई. में बदायूँ के क़स्बे इस्लामनगर,अपनी ननिहाल(उत्तर प्रदेश) में एक सामान्य किसान,बेसिक शिक्षा में अध्यापक व कवि पंडित भूपराम शर्मा “भूप”तथा उनकी पत्नी पुष्पा फूलवती के पुत्र के रूप में हुआ था।डॉ उर्मिलेश मूल रूप से वर्तमान तहसील बिल्सी (पूर्व तहसील सहसवान)के ग्राम “भतरी गोवर्धनपुर” बदायूँ के निवासी थे।बैसे तो इस गांव की गिनती अति पिछड़े गांवों में आती है लेकिन आज बिल्सी तहसील क्षेत्र का भतरी गोवर्धनपुर गांव किसी पहचान का मोहताज नहीं है। इस गांव में जन्में राष्ट्रीय गीतकार डा. उर्मिलेश ने हिंदी कविताओं के माध्यम से देश ही नहीं अपितु दुनियां में बदायूं जिले का नाम रोशन किया है।बदायूँ के क़स्बे इस्लामनगर,अपनी ननिहाल में 6 जुलाई 1951 ई. में पैदा हुए शंखधार का बचपन भतरी गोवर्धनपुर में बीता. बेसिक शिक्षा मुन्ना लाल इंटर कालेज, बजीरगंज, (बदायूं) ग्रेजुएशन : एस एम कालेज, चंदौसी पोस्ट ग्रेजुएशन : एन एम एस एन दास कालेज से,वो 1972 के आगरा विश्वविद्यालय से गोल्ड मैडेलिस्ट थे । उस समय आगरा विश्वविद्यालय हुआ करता था,पी एच डी : आगरा विश्वविद्यालय से 1976 में डा ओंकार प्रसाद माहेश्वरी जी के निर्देशन में पी एच डी पूरी की।
नेहरू मेमोरियल शिव नारायण दास महाविद्यालय से पोस्ट ग्रेजुएशन करने के अगले ही वर्ष इसी कॉलेज में यह हिंदी के प्राध्यापक नियुक्त हो गए। बाद में वह हिंदी के प्राध्यापक एवं विभाध्यक्ष रहे,। मृत्यु से पूर्व उनका पूरा कार्यकाल लगभग 33 बर्ष इस कॉलेज में ही बीता।पश्चिमी उत्तर प्रदेश की धरती छंद की दृष्टि से उर्वर मानी जाती है. गीतों के एक से एक धुरंधर कवि यहीं पैदा हुए. डॉ उर्मिलेश हिंदी की हर विधा में समान रूप से पारंगत थे।सामाजिक विसंगतियों, रिश्तों,देशभक्ति,प्रेम,सौहार्द ,समरसता,भक्ति,जाग्रति,एकता,मानवीय संवेदना जीवन दर्शन आदि अनेकों पहलुओं को उन्होंने अपनी रचनाओं में व्यक्त किया है।
साहित्य सफर
उर्मिलेश जी ने 1975 में उनके कॉलेज के प्रवक्ता की सलाह पर एक साहित्यिक संस्था ‘अञ्चला‘का गठन किया जिसमें बृजेंद्र अवस्थी जी को अध्यक्ष,उर्मिलेश जी को सचिव,सुभाष उप-सचिव तथा प्रकाश निर्मोही को कोषाध्यक्ष बनाया गया।पदेन ज़िलाधिकारी संरक्षक बनाये गये।’अञ्चला‘के तत्वावधान में बहुत बड़े क्षेत्र (पश्चिमी उत्तर प्रदेश)के कालेजों के छात्र-छात्राओं के लिए निबन्ध व कहानी प्रतियोगिताएँ आयोजित की गयी, 01 जनवरी,1976 को बदायूँ के नगर पालिका ग्राउंड पर अखिल भारतीय विराट कवि-सम्मेलन का आयोजन किया गया था,जिसमें भारतवर्ष के सुविख्यात कवियों ने काव्य पाठ किया था।।तब श्री देवी दयाल ज़िलाधिकारी थे। उन्हें कविता के प्रति रुचि थी।एकाध बार तो देवी दयाल जी अञ्चला के कार्यालय उर्मिलेश जी के निवास पर आयोजित गोष्ठी में तीन-चार घंटे तक बैठे रहे थे।
बाद में ‘अञ्चला‘ के सदस्यों में आपसी असहमतियों के चलते, नई संस्था ‘मंच’अस्तित्व में आई जिसमें अवस्थी जी,उर्मिलेशजी व मोहदत्त साथी जी थे।उसी के आसपास उर्मिलेश जी ने पूरी तरह कवि-सम्मेलन की ओर जाने का संकेत दिया।इसके बाद ही डॉ उर्मिलेश शंखधार कवि-सम्मेलन राह पर चल पड़े।जहाँ से वोह नित नई ऊंचाइयों को छूते चले गए।
काव्य रचना:
राष्ट्रकवि डॉ उर्मिलेश काव्य की हर विधा में समान रूप से पारंगत थे!उन्होंने हिंदी साहित्य में न सिर्फ दोहे,ग़ज़ल,मुक्तक,गीत,नवगीत को एक नयी ऊंचाई दी, बल्कि अपनी रचनाओं के माध्यम से राष्ट्रीय चेतना का भी सृजन किया.
हिंदी काव्य मंचों पर अपने व्यक्तित्व और ओजपूर्ण रचनाओं से श्रोताओं को मन्त्र मुग्ध कर हिंदी की सेवा करने वाले डॉ उर्मिलेश,यूँ तो सैकड़ों सम्मानों से सम्मानित हुए बहीं डॉ उर्मिलेश को मरणोपरांत उत्तर प्रदेश सरकार द्वारा ‘यश भारती’ सम्मान से सम्मानित किया गया! उनका विस्तृत साहित्य रहा है जिसमे मुख्य रूप से गीत, ग़ज़ल, कविता, मुक्तक विधाओं में प्रकाशित प्रमुख संग्रह पहचान और परख, सोत नदी बहती है, चिंरजीव हैं हम, बाढ़ में डूबी नदी (सभी गीत-संग्रह); धुआँ चीरते हुए, जागरण की देहरी पर, बिम्ब कुछ उभरते हैं (दोनों नवगीत-संग्रह); घर बुनते अक्षर, फ़ैसला वो भी ग़लत था, धूप निकलेगी, आइनें आह भरते हैं (सभी ग़ज़ल-संग्रह); गंधो की जागीर, वरदानों की पाण्डुलिपि (दोहा-संग्रह), अक्षत युगमान के (कविता संग्रह) एवं एक ऑडियो सी डी ज़िन्दगी से जंग है. बदायूं क्लब एवं बदायूं महोत्सव जैसी संस्थाओं को राष्ट्रिय स्तर पर पहचान दिलाने में डॉ उर्मिलेश का योगदान अप्रतिम है.
उर्मिलेश जी का गृहस्थ जीवन डॉ उर्मिलेश 28 फरवरी 1975 में मंजुल शंखधार के साथ परिणय सूत्र में बंध गए जिनसे सोनरूपा , रजतरूपा व अक्षत अशेष के रूप में तीन सन्तानें हुई।आज तीनों ही सन्तानें उर्मिलेश जी का नाम ऊँचा कर रही हैं,और तीनों अपने जीवन साथियों-डॉ सोनरुपा – विशाल,रजतरुपा – अभिषेक,डॉ अक्षत अशेष – रिचा, के साथ सफल वैवाहिक जीवन बिता रहे हैं।बहीं कहीं न कहीं मंजुल शंखधार को अपने जीवन साथी असमय चले जाना अखरता होगा,लेकिन वो भी अपने धेवतों, व नातियों संग हँसी खुशी जिंदगी बिता रही हैं।
डॉ. उर्मिलेश की साहित्यिक विरासत को उनके पुत्र डा. अक्षत अशेष और पुत्री सोनरूपा विशाल सहेज रहे हैं,।जहां एक ओर अक्षत अशेष ने कवि के रूप में राष्ट्रीय स्तर पर अपनी पहचान बनाकर अपने पिता का नाम रोशन कर रहे हैं बहीं सोनरूपा विशाल कवित्री के रूप में देश के साथ साथ, सात समंदर पार(अंतराष्ट्रीय स्तर पर) भी उर्मिलेश जी के नाम को रोशन कर रही हैं,आज शहर के सबसे प्रसिद्ध साहित्यिक सांस्कृतिक क्लब ‘बदायूं क्लब बदायूं’ में डा. उर्मिलेश की मूर्ति लगी है और लावेला चौक से पुलिस लाइंस चौराहे तक की सड़क की सड़क का नामकरण भी डा. उर्मिलेश मार्ग किया गया है। डा. उर्मिलेश जन चेतना समिति की ओर से समय-समय पर साहित्यिक आयोजन भी किए जाते हैं। डा.उर्मिलेश की याद में बदायूं क्लब में प्रति वर्ष बदायूं महोत्सव का भी आयोजन होता है, जिसमें साहित्य, कला से जुड़ी प्रतिभाओं को प्रोत्साहित किया जाता है।
डॉ. उर्मिलेश की छवि वेहतरीन खुशबू वाले इत्रों के शौकीन,उर्मिलेश जी जिस कार्यक्रम में भी उपस्थिति दर्ज कराते थे, बहाँ उनकी काव्य की चर्चा के साथ साथ,उनके पहनावे शानदार कुर्ता-पजामा जाकिट व सर्दियों में बंद गले का सूट के साथ इत्र की चर्चा भी शामिल रहती थी उनकी छवि की अमिट स्मृति है। स्कूल.कॉलेज से लेकर कवि-सम्मेलन तक में जो छवि सदैव शामिल रही, वह डॉ उर्मिलेश’ की ही थी। उनकी पर्सनॉलिटी जहां बहुत रॉयल थी उतनी ही उनकी लेखनी असाधारण थी। वह शब्द-शिल्प और भावों की प्रधानता के अग्रणी हैं जिनका अनुसरण कर कितनी ही पीढ़ियां स्वयं को साहित्य में संपादित कर सकती हैं।
उनकी प्रसिद्ध कविता
चाहें ज़िंदा रहें चाहें मर जाएँ हम !
गायेंगे गायेंगे हम वंदे मातरम् !!
आज भी पूरे देश के काव्यप्रेमियों की ज़ुबान पर है
सकारात्मकता से लबरेज़ डॉ उर्मिलेश की इस ग़ज़ल ने लोगों को जीने का तरीक़ा सिखलाया है!
बेवजह दिल पे कोई बोझ न भारी रखिये
ज़िन्दगी जंग है इस जंग को जारी रखिये
आज भी उनकी कविताएं जनमानस के मन मस्तिक्ष में गूंजती है. उनके कुछ प्रमुख शेर बहुत प्रसिद्ध रहे जैसे
तू इन बूढ़े दरख्तों की हवाएँ साथ रख लेना,सफ़र में काम आयेंगी दुआएँ साथ रख लेना हँसी बच्चो की, माँ का प्यार और मुस्कान बीबी की,तू घर से जब चले तो दवाएँ साथ रख लेना
उसने मन्दिर तोड़ डाला तूने मस्जिद तोड़ दी
जलजला वो भी ग़लत था, जलजला ये भी ग़लत
पूरी हिम्मत के साथ बोलेंगे, जो सही है वो बात बोलेंगे, साहिबो,हम कलम के बेटे हैं,कैसे हम दिन को रात बोलेंगें
अब बुजुगों के फ़साने नहीं अच्छे लगते ,मेरे बच्चों को ये ताने नहीं अच्छे लगते बेटियाँ जबसे बड़ी होने लगी हैं मेरी,मुझको इस दौर के गाने नहीं अच्छे लगते
उन्हें याद करते हुए प्रसिद्ध हास्य कवी सुरेन्द्र शर्मा कहते हैं “उर्मिलेश हर पायदान पर काव्यपाठ पर सिद्ध हस्त थे ।वो जितने अच्छे गीतकार थे उतने ही अच्छे ग़ज़लकार थे।देश में घटने वाली हर मह्त्वपूर्ण घटना पर घटना पर उनकी क़लम से कुछ न कुछ नया निकल आता था ।मंच पर और साहित्य में उर्मिलेश की कमी सदैव ही महसूस की जाती रहेगी”
गीतकार डॉ कुंवर बेचैन ने कहा था “डॉ. उर्मिलेश की रसपूर्ण एवम् धारदार ग़ज़लें कमल की पाँखुरी पर तलवार का पानी है !”
पद्मश्री गोपाल दास नीरज के अनुसार “डॉ.उर्मिलेश ने गीत और ग़ज़ल के क्षेत्र में जो कम् किया है ,वह देश की उपलब्धि है!”
प्रसिद्ध कवि कमलेश्वर के अनुसार “‘काव्या’ के माध्यम से मैं तुम्हारे दोहों से परिचित हुआ हूँ! तुम्हारी दृष्टि और काव्यात्मक सृजनशीलता से मैं चमत्कृत हूँ
16 मई 2005 को दिंवगत हुए डॉ उर्मिलेश आज भले ही इस संसार में नहीं है लेकिन उनकी स्मृति साहित्यप्रेमियों के मन में सदैव रहेगी। उनका लिखा गया काव्य और वे चिर अमर हैं।